पुराणों में लिखा है कि लक्ष्मी का स्वरूप चतुर्भुज है तथा वे कमलासन पर सुशोभित उल्लू पक्षी को अपना वाहन किए हुए हैं। इनके बल और शक्ति का वारापार नहीं है। यद्यपि कई एक महात्माओं ने लिखा है कि लक्ष्मी और सरस्वती का बिरला साथ होता है अर्थात् जो सरस्वती के कृपापात्र होते हैं वे बहुत कम लक्ष्मी के भी कृपापात्र होते हैं, पर बहुधा सरस्वती के पूर्ण कृपापात्र लक्ष्मी की परवाह नहीं करते। उनकी इच्छा तो इसके आने की अवश्य होती है पर कठिनाई यह है कि हर तरह की लक्ष्मी को वे स्वीकार नहीं करना चाहते और शुद्ध रीत पर जैसा वे चाहते हैं वैसा इसका आगमन होना दुष्कर सा रहता है। यदि लक्ष्मी महाराणी ने कृपा भी की तो वे लोग उसको वैसा प्यार नहीं करते जैसा उसके मुख्य कृपापात्र एकमात्र भक्त उसका आदर करते हैं। उनका कथन यह है ''माता। तुम्हारे रहने की मात्र से कुछ उपकार और फायदा नहीं है वरन् -
मेरे कर पैंड़ा करो जित चाहो तित जाव।
अर्थात् मेरे हाथ में पहले आओ जिससे मैं तो चाहूँ सो मुझे मिल जाय। मेरे हाथ से गुजर कर तब तुम जहाँ चाहे वहाँ जाओ, मैं तुम्हें कैद कर नहीं रखा चाहता, संसार के कौन से पदार्थ हैं जो तुम्हारे द्वारा नहीं मिल सकते, तब तुम्हें कैद कर रखने में कौन सा बड़ा लाभ है, हाँ उन मनहूसों की तो बात ही निराली है जिन्हें तुमको कैद कर रखने में ही मजा मिलता है।
संसार में जितनी बातों से कष्ट मिलता है तथा भय होता है वे सब लक्ष्मी के आने से ऐसा दूर हो जाते हैं जैसा वर्षा काल में आकाश से मेघ उड़ जाते हैं। सच पूछो तो ऐसा कोई न होगा। जिसको इसकी आकांक्षा न हो। जितना उद्यम मनुष्य करता है सब इसी के लिए। जब यह महाराणी आती हैं तो इतनी जल्दी और इतने प्रकार से तथा इतने भिन्न-भिन्न द्वार से आती हैं कि इनके कृपापात्र को इनके रखने का ठौर नहीं मिलता। ऐसा ही जब ये रूठ कर जाने लगती हैं तो इतनी जल्द चली जाती हैं कि कितना ही थामों और गह के पकड़ो फिर उस भाग्यहीन के पास ये किसी तरह पर नहीं रहतीं। 'गजभुक्त कपित्थ' की भाँति वह ऊपर का आडम्बरपात्र रह जाता है और भीतर-भीतर सब ओर से पोला पड़ जाता है। किसी ने अच्छा कहा है -
समायाति यदा लक्ष्मीर्नारिकेलाफलाम्बुवत्।
विनिर्याति यदा लक्ष्मीर्गजभुक्तकपित्थवत्।।
अर्थात्-लक्ष्मी जब आती हैं तो ऊपर से कुछ नहीं मालूम होता पर भीतर-भीतर मनुष्य अंत:सारवान् होता जाता है, नारियल के फल में डाब, ऊपर से कुछ नहीं मालूम होता पर भीतर उसके दूध सा पानी भरा रहता है - पर जब ये जाती हैं तब हाथी के निगले हुए कैथे की भाँति खुक्ख हो जाता है - हाथी को कैथा दो तो वह सहिगे का सहिगा निगल जाता है और वैसा ही समूचा लीद कर देता है पर भीतर उसके गूदा बिलकुल नहीं रहता। लक्ष्मी की कृपा होते ही यावत् काम सब आरंभ हो जाते हैं मकान भी छेड़ दिया जाता है - जमींदारी भी खरीदी जाने लगती है - लड़की-लड़कों के ब्याह में भी ऊँची सी ऊँची करतूत होने लगती है। पर धन जाते ही उसके सब काम ऐसा ही अधकचड़े पड़े रह जाते हैं जैसा गरमी के दिनों में क्षुद्र नदियाँ सूख के रह जाती हैं। बहुधा देखा गया है कि लक्ष्मी के आने के साथ खूबसूरती, तरहदारी और कुलीनता भी बढ़ती जाती है और लक्ष्मी के जाने के जाने के साथ ही ये तीनों घट जाती हैं।
बहुधा देखने में आया है कि लक्ष्मी का एकांत भक्त चित्त का उदार नहीं होता। उसको इनसे ऐसा प्रेम हो जाता है कि वह इनको किसी तरह पर अपने पास से नहीं हटने देता। मसल है 'मरजैहों तोहि न भुजैहौं।' वह लक्ष्मी को यहाँ तक आँखों के ओट नहीं किया चाहता कि चाहे सब कुछ चला जाय तथा जीवन से भी वियोग हो जाय किंतु धन का वियोग उसे न होने पाए। सूम के पास लक्ष्मी क्यों जाती है इस पर किसी कवि ने कहा है -
शूरं त्यजामि वैधव्यादुदारं लज्जया पुन:।
सापल्यात्पण्डितमपि तस्मात्कृपणमाश्रये।।
अर्थात् शूरवीर के पास मैं इसलिए नहीं जाना चाहती कि वह जब अपनी जान पत्ते पर रखे हुए लड़ाई में प्राण खोने को उद्यत है तो उसके जीने का कौन ठिकाना, तब मुझे वैधव्य का दु:ख सहना होगा। उदार के पास भी जाते लज्जा होती है कि उदार मुझे सब के सामने फेंका करता है। पंडित के पास इसलिए नहीं जाती कि वहाँ मेरी सौत सरस्वती गाज रही है। इसी से मैं कृपण का सहारा लेती हूँ कि यह मुझे आदर से रखेगा।
दूसरी बात यह भी देखी जाती है कि धनी बहुधा मूर्ख होते हैं, सो क्यों - इसको भी किसी कवि ने बड़ी उत्तम रीति पर दर्शाया है -
पह्मे! मूढ़जने ददासि द्रविणं विद्वत्सु किं मत्सरो
नाहं मत्सरिणी न चापि चपला नैवास्मि मूर्खे रतां।
मूर्खेभ्यो द्रविणं ददामि निततां तत्कारणं श्रूयतां
विद्वान्सर्वजनेषु पूजिततनुर्मुर्खस्य नान्या गति:।।
कवि कहता है - ''लक्ष्मी तुम मूर्ख के पास जाती हो, पढ़े-लिखे विद्वानों से तुम्हें क्या ईर्ष्या है जो वहाँ नहीं जाती?'' तब लक्ष्मी जवाब देती हैं - ''हमें विद्वानों से कोई ईर्ष्या नहीं है, न हम चंचला हैं - मूर्खों को जो हम धन देती हैं उसका कारण यह है कि विद्वानों का तो सब लोग मान और प्रतिष्ठा करते हैं, मूखों को कौन पूछता यदि हम भी उनके पास न जातीं ।''
ऐसा ही लक्ष्मी और सरस्वती के संवाद में अनेक कल्पनाएँ कवियों ने की हैं उनमें यह एक बड़ी उत्तम है -
विद्वांस: कृतबुद्धय: सखि। मम द्वारि स्थिता नित्यश:
श्रीमंतोपि मया विना पशुसपास्तस्मादहं श्रेयसी।
श्रीवाग्देवतयोरमूनि वचनान्याकर्ण्य वेधाश्चिरा -
दूचे श्रेयतरे उभे यदि भवेदेको विवेको गुण:।।
लक्ष्मी सरस्वती से कहती हैं - ''सखि। विद्वान पढ़े-लिखे मेरे कृपापात्रों के द्वार पर नित्य हाथ पसारे खड़े रहते हैं।'' तब सरस्वती ने कहा - ''हाँ ठीक है, पर श्रीमंत भी मेरे न रहने से पशुतुल्य देखे जाते हैं, तब हमीं न अच्छी हुई।'' इस तरह पर विवाद के उपरांत दोनों ने ब्रह्मा को पंच बदा। ब्रह्मा दोनों की बातें सुन देर तक सोचने के उपरांत बोले - ''तुम दोनों ही अच्छी हो यदि एक विवेक गुण रहे तो - अर्थात् विवेकशून्य न तो लक्ष्मी का कृपापात्र अच्छा न सरस्वती ही का''।
बुरा से बुरा काम। जिसका करने वाला राजा के यहाँ से दंड पाने योग्य होता है और जो समाज में अत्यंत घृणित है - उसे भी धन के लिए करते लोग जरा नहीं सकुचाते। इसी से उर्दू के नामी शायर सौदा का कौल है -
''मादर पिदर बिरादर जो जो कहो सो जर है।''
फारसी के एक दूसरे शायर का भी ऐसा ही कौल है - ''धन! तू ईश्वर नहीं है, पर जितने दोष हैं सबों का ढाँपने वाला है और मनुष्य के जीवन में जितनी आवश्यकताएँ हैं सबों का पूरा करने वाला है।''